त्याग की महिमा अपरम्पार है। त्याग की महिमा से हमारे शास्त्र भरे हुए हैं। समाज की उन्नति त्याग के बिना सम्भव नहीं। हमारे पूर्वज स्वयं सादगीपूर्ण जीवन बिताते थे और परिश्रम से प्राप्त की हुई पूंजी को समाजोपयोगी कार्यों में लगाकर स्वयं को धन्य मानते थे। इन्हीं विचारों से विद्यालय, अस्पताल, देवमन्दिर, धर्मशालाय , महाविद्यालय, छात्रावास आदि का निर्माण हुआ है।

 

मुझे जो सम्पत्ति प्राप्त हुई है उसमें परमात्मा की कृपा का भी अंद्गा है, परिवार का, समाज का, देद्गा का भी हिस्सा है, ऐसी भावना को दृढ़ बनाने पर बल दिया गया है कि संसार में जो सम्पत्ति है वह किसी व्यक्ति की नहीं अपितु श्री भगवान की हैं।

”ईशावास्यमिदं सर्व यत्‌ किंच जगत्या जगत्‌”

 

इस प्रकार की भावना रखने पर ऐसे त्यागपूर्ण उपभोग का अभ्यास हो जाता है जिसमें व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक संतुलन रहता है और यह संतुलन अपने आप सार्वत्रिक शान्ति की प्रस्थापना करता है।

 

संगठन का स्वरूप विराट बने ऐसा हमें नित्य लगता रहता है। त्याग के बिना वह हो नहीं सकता। उसके लिए अर्थदान, समयदान, श्रमदान और श्रेयदान की आवद्गयकता है। समाज की सेवा करने वाले हर कार्यकर्ता को तथा हर पदाधिकारी को उपरोक्त चार प्रकार के त्याग को विद्गोष महत्व देना चाहिए। आदर्द्गा नेतृत्व वहीं कर सकता है जो अपनी पूरी क्षमता के साथ उपरोक्त चार प्रकार के दान प्रेम एवं सेवा भाव से करता रहता है। धन केवल मेरा नहीं इस भावना से जैसे धन के विवेक पूर्ण वितरण की प्रेरणा मिलती है, उसी प्रकार मुझे मेरा समय भी दूसरों के लिये देना चाहिये। ऐसी धारण रखना जरूर है। वृद्ध माता-पिता, छोटे बालक, मित्र, परिवार, समाज के छोटे-छोटे कार्यकर्ता, समाज के उत्सव, बैठके आदि के लिए समय निकालना बहुत आवद्गयक है। शरीर से भी मुझे मित्र, परिवार तथा समाज का काम करना चाहिए। यह है श्रम का दान।

कोई भी काम करने से कमीपन महसूस होने देना श्रेष्ठता का द्योतक है। गांधीजी ने पाखाने साफ किये, तिलक जी ने कार्यकर्ताओं के लिए पानी गरम किया, मालवीय जी दे दरियां उठायी। श्रम का भी बड़ा मूल्य होता है इसलिए निष्ठा से श्रमदान करो और अंत में सब से महत्व का दान है श्रेय दान। कार्य का श्रेय दूसरों को देते रहो। जब कोई कहता रहता है कि यह ”मैंने किया” तो उस किए हुए कार्य का मूल्य शून्य हो जाता है। श्रेय देने से कार्य का मूल्य बढ ता है। इसलिये कभी भी ‘मैं’, ‘मैंने’, ‘मुझे’ की रट नहीं लगाओं। दूसरों को श्रेय बांटते रहें।

 

ध्यान में समाज निरपेक्ष त्याग की पूजा बांधता है। असाधारण त्याग करके कई विभूतियाँ अमर हो गई। राद्गट्र के लिए सम्पत्ति का त्याग करने वाले भामाद्गााह, धर्म पालन के लिए अपने देह के मांस खण्डों को काटने वाले राजा शिबी , संस्कृति संरक्षण के लिए मर मिटने वाली चौदह हजार राजपूत विरांगनाएं, आशाशाह , असुरों, का विनाद्गा करने हेतु अपनी हडि्‌डयां देने वाले महर्षि दधीचि, त्याग के ऐसे कई प्रसंगों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। धन्य है ये महान्‌ विभूतियां! उनके त्याग की अमर गाथाएं, हमें हरदम प्रेरणा देती रहेंगी।