समाज का बहुत बड़ा ऋण हर व्यक्ति पर होता है। समाज हमारे लिए जन्म से मृत्यु तक बहुत कुछ करता है। इसलिए समाज में परमात्मा की भावना करके उसकी सेवा करने का प्रयास करना चाहिए। मेरे पास कुछ हो अथवा न हो, समाज से प्रेम करना, समाज की सेवा करना मेरा कर्तव्य है। माता पुत्र की सेवा करती है लेकिन ऐसा कभी नहीं मानती कि मैंने बहुत कुछ किया है। सेवा करती है बदले में कुछ नहीं चाहती। यही सच्ची सेवा है। समाज में अनेक समस्याएं हैं। इन सबको हम नहीं सुलझा सकते। किन्तु निराधार को आधार, वैद्यकीय सेवा, व्यावसायिक सहायता, द्गिाक्षा अथवा संस्कार, इनमें अपनी क्षमतानुसार योगदान देकर हम समाज की सेवा कर सकते हैं। सेवावृत्ति में ही क्षमताओं की सार्थकता है और सेवावृत्ति ही मनुजता की पहचान है। अपने पास थोड़ा ही अतिरिक्त समय, घन अथवा किसी प्रकार का बल हो तो वह समाज स्वरूप परमात्मा की सेवा में लग जाये, यही उसका सर्वोत्तम सदुपयोग है। सेवा से लोगों के मन में अपनेपन का भाव निर्माण होता है और संगठन सुदृढ होता है। उसमें शक्ति आती है। सेवा से कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों फलित होते है।